अल्हड से बचपन के वो दिन अक्सर याद आ जातें है ,
यादों की गलियों में फिर वो हरदम मुझे बुलाते है !
नमक मिर्ची की लिपटी अम्बियां कैसा रंग जमाते थे ,
सी -सी करते ,पानी पीते ,फिर खाने आ जाते थे !
अल्हड से बचपन के वो दिन अक्सर याद आ जातें है |
कित -कित ,कबड्डी और पिट्टो में अपना समय बिताते थे ,
मास्टर जी की मार से बचने के हमें बहाने आते थे !
अल्हड से इस बचपन को ठग कर यौवन दबे पाओं आया ,
अपने हाथ बढाकर उसने मेरा ,दुल्हन का श्रृंगार किया |
अलबेली सी दुल्हन बन गयी ,वो स्मृतियाँ भी प्यारी है ,
अपनी घर की रानी हूँ मैं ,फिर भी लगे कुछ खाली है !
रात -दिन की भागदौड़ में बचपन फिर याद आया तू ,
सुखी पलकें गीली हो गयी ,क्यों इतना मुझे सताया तू ?
गीली आँखे पोछ रही थी ,दिख गयी बिटिया मेरी ,
चटाई पर बैठी, किसी धुन में खोई थी दुनिया मेरी !
चुपके से जाकर देखा तो ,हाथ थे उसके रंगे हुए,
ड्राइंग की कॉपी थी खाली ,पैर चित्रकारी से भरे हुए !
लाल रंग की पेंसिल लेकर मेरा हाथ, थी वो मांग रही ,
बड़े अरमानो से, वो थी चेहरा मेरा, ताक रही |
हँस कर मैंने हाथ बढ़ाया ,गोद में भरकर बिठा लिया ,
अपने बचपन को मैंने, संग फिर उसके खूब जिया !
अब बचपन को नहीं बुलाती ,बचपन को जी लेती हूँ ,
बिटिया के संग बच्चा बनकर मधुर रस मैं भी पी लेतीं हूँ !
